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उत्कृष्ट प्रबंधन के रूप

सुरेश कांत

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2762
आईएसबीएन :81-8361-015-3

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इसमें उत्कृष्ट प्रबंधन कैसे हो इस विषय पर प्रकाश डाला गया है....

Utkrastha Prabandhan Ke Gur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रबंधन आत्मा-विकास और सतत् प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कम्पनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है।
‘उत्कृष्ट प्रबंधन के रूप’ को विषयानुसार चार उप खण्डों में विभाजित किया गया हैः स्व-प्रबंधन, नेतृत्व-कला, औद्योगिक सम्बन्ध तथा कॉरपोरेट-संस्कृति। प्रबंधन कौशल के विशेषज्ञ स्पष्टता, सफलता और विफलता की अवधारणा, व्यावसायिक निर्णय-प्रक्रिया में धैर्य और प्राथमिकता-क्रम की अहमियत, रचनात्मक दृष्टि कोण, प्रबंधन के मानवीय पहलू, कर्मचारियों में सकारात्मक नजरिया तथा प्रतिभा का सदुपयोग आदि बिन्दुओं पर व्यावहारिक कोण से विचार कर रहे हैं।
प्रबंधन के विद्यार्थियों और आम पाठकों के लिए एक मार्गदर्शक पुस्तक।

भूमिका : क्या, कैसे और किसके लिए

आज से लगभग चार साल पहले हिंदी के पहले बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला कारोबार’ के प्रकाशन के साथ हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांति हुई थी। उसके खूबसूरत कलेवर पेशेवराना प्रस्तुति और उच्चस्तरीय सामग्री ने मुझे भी उसके साथ बतौर लेखक जुड़ने के लिए प्रेरित किया। और तब से उसमें हर मंगलवार को प्रकाशित होनेवाले अपने कॉलम में मैं प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर नियमित रूप से लिखता रहा।
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैयद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था ‘हिंदीवाला’ होने के नाते मैं इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरुआत-इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।
प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलनेवाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-आधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखनेवाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ !
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधारणाओं को समझने में हो सकनेवाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहां हिंदी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे, वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवंत और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज, कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, चाय, कुर्सी, मेज, बस, कार, रेल, रिक्शा, चेक, ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।
लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं, बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए है।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे स्वयं उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनंद जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा-बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा-ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो; और मैं कहूँ कि मरा हुआ है, तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यह कहना चाहता हूँ कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार, दफ्तर और कारोबार-सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :

        नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
        कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका का कहीं का है।
-सुरेश कांत


स्व प्रबंधन
पूछने में झिझक कैसी


संता सिंह एक गंदी नाली के किनारे बैठा बार-बार उसमें हाथ डालकर कुछ ढूँढ़ रहा था। वह नाली में हाथ डालता, मुट्ठी में कीचड़ भरकर बाहर निकालता, उँगलियों से कीचड़ को मसलकर देखता और अपनी मनोवांछित चीज न पा फिर नाली में हाथ डाल देता। जब उसे ऐसा करते काफी देर हो गई, तो उसकी हरकतों पर नजर रखे हुए ओट में खडे उसके एक परिचित ने नजदीक आकर उससे पूछा,‘संता सिंह जी, यह क्या कर रहे हो ?’
‘अठन्नी ढूँढ़ रहा हूँ,’ संता सिंह ने जवाब दिया।
‘अठन्नी ?’ परिचित ने पूछा, ‘क्या आपकी अठन्नी इसमें गिर गई है ?’
‘नहीं, गिरी तो नहीं है,’ संता सिंह ने कहा, ‘पर ढूँढ़ने में क्या हर्ज है ?’
बाइबल में कहा गया है कि खटखटाओ, और दरवाजा खुलेगा। पुकारो, और जवाब मिलेगा। शर्त बस यह है कि हमारी खटखटाहट वाजिब होनी चाहिए, पुकार सच्ची होनी चाहिए। मतलब यह कि कुछ पाने की इच्छा करने से पहले हममें उसे पाने की पात्रता होनी चाहिए। बिना पात्रता के कहीं भी अठन्नी ढूँढ़ने लग जाने का कोई फायदा नहीं, पर यदि पात्रता हो तो फिर खटखटाने और पुकारने में झिझक कैसी ?
बच्चे कक्षाओं में शिक्षक से सवाल पूछने से हिचकते हैं, भले ही पाठ उनकी समझ में न आ रहा हो। उन्हें लगता है कि सवाल पूछने से शिक्षक और सहपाठियों द्वारा बुद्धू न समझ लिए जाएँ। उन्हें नहीं पता कि सवाल न पूछने से बुद्धू समझे भले न जाएँ, बुद्धू रह जरूर जाते हैं। कहावत गलत नहीं है कि ‘जड़तापूर्ण प्रश्न करने से जड़तापूर्ण गलतियाँ करने की गुंजाइश नहीं रहती।’ समाज में व्यक्ति मुसीबत में पड़कर भी पड़ोसियों से सहायता माँगने में झिझकता है। वह समझता है कि सहायता माँगने से उसकी नाक नीची हो जाएगी। नाक बचाने के खयाल में वह भूल जाता है कि समाज में एक-दूसरे की सहायता के बिना काम नहीं चलता। कर्मचारी बॉस से अपनी समस्या कहने में हिचकिचाता है कि बॉस कहीं मना न कर दे। सेल्समैन बहुत से आदेश सिर्फ इसलिए गँवा देते हैं, क्योंकि वे आदेश माँगने में हिचक जाते हैं। वे नहीं जानते कि एक बार कहा गया ‘नहीं’ हमेशा के लिए ‘नहीं’ होता। अगले दिन, अगले महीने, अगले बरस या अगले दशक यह ‘हाँ’ हो सकता है।


प्राथमिकता का सवाल


एक बार एक पिता-पुत्र कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक हाथी सस्ते में बिक रहा था। बेटे ने पिता से हाथी खरीद लेने के लिए कहा, पर पिता ने मना कर दिया। बरसों बाद वे अपने टोयोटा में बैठे जा रहे थे कि रास्ते में एक हाथी फिर बिकता दिखाई दिया। बेटे ने झिझकते हुए पिता से फिर हाथी खरीदने की इच्छा जताई, तो इस बार पिता ने इजाजत दे दी। बेटे से यह पूछे बिना नहीं रहा गया कि पिता ने वर्षों पहले हाथी खरीदने की इजाजत क्यों नहीं दी, जबकि तब हाथी सस्ता मिल रहा था। पिता ने जवाब दिया, ‘बेटा, तब हम गरीब थे और प्राथमिकताएँ भिन्न थीं। आज हम इसे खरीदने की हैसियत रखते हैं।’
विभिन्न कारणों से जो आज ‘नहीं’ है, वे कारण न रहने पर कल वह ‘हाँ’ में बदल सकता है। ‘नहीं’ के डर से प्रयास करने से नहीं हिचकना चाहिए। प्रयास करने पर ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ? ‘नहीं’ सुनना पड़ा जाएगा-यही न ? पर प्रयास न करने पर तो वह अपने-आप ही ‘नहीं’ है। हाँ, प्रयास करने पर ‘हाँ’ भी संभव है। मतलब यह कि प्रयास करने से नुकसान कुछ नहीं होगा लाभ जरूर हो सकता है। अतः ‘नहीं’ के लिए तैयार रहते हुए ‘हाँ’ के लिए प्रयास करने से नहीं चूकना चाहिए।


कारगर युक्ति


माना कि रहीम ने कहा है कि ‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कछु माँगन जाहिं’। पर यदि आपको अपनी माँग के वाजिब होने का विश्वास है और आप सिर्फ अपने ही लाभ के लिए ‘भीख’ नहीं माँग रहे हैं, तो ऐसी माँग करने में कोई हर्ज नहीं। आगे बढ़िए और माँग लीजिए। पूछकर तो देखिए। हाँ, पहले थोड़ा ‘होम-वर्क’ जरूर कर लीजिए। कुछ इस तरह, मानो आपका प्रेम-प्रसंग चल रहा हो। अपना अनुरोध लिख डालिए, मात्र छठा-सातवाँ प्रारूप ही अच्छा रहेगा उसे भेजने के लिए जिससे आप अनुरोध करने जा रहे हैं और फिर सफलता की उम्मीद रखिए। यकीन मानिए, यह तदबीर 90 प्रतिशत मामलों में काम कर जाती है।
वर्षों पहले एक मित्र ने इस तरकीब को आजमाया और पैनएम से प्रथम श्रेणी में दुनिया की सैर का पुरस्कार पाया। तब वह अमेरिका में जनरल मिल्स में काम करता था। कंपनी की गृह-पत्रिका में उसने एक छोटी-सी सूचना पढ़ी कि कंपनी ‘पीएल-480 योजना’ के एक अंग के रूप में सोयाबीन को शामिल करने की दृष्टि से खानपान की आदतों के सर्वेक्षण के लिए दो सदस्यों का एक दल भारत, बर्मा और श्रीलंका भेजना चाहते हैं। सूचना से वह खिल उठा। इस बहाने वह भारत में रहनेवाले अपने माता-पिता से मिल सकता था। अंततः उसने अपनी कंपनी के निदेशक को यह पत्र लिखा।
‘महोदय, मैंने गृह-पत्रिका में सर्वेक्षण-दल भेजे जाने की कंपनी की योजना के संबंध में पढ़ा। चूँकि मैं एक भारतीय हूँ, अतः बेहतर सर्वेक्षण करने में मैं टीम के लिए अच्छा मददगार साबित हो सकता हूँ। मैं भारत में अपने खर्च पर रहूँगा। प्रायः पूरे भारत में मेरे रिश्तेदार या परिचित रहते हैं। यही नहीं, अमेरिका वापस लौटने पर मैं अपने विमान-किराए का पैसा भी किस्तों में लौटा दूँगा। कंपनी से मुझे सिर्फ दौरे पर रहते हुए अपना नियमित वेतन चाहिए।’
और हफ्ते-भर में ही उसे सोयाबीन काउंसिल ऑफ अमेरिका के विशेष परामर्शदाता के रूप में 45 दिन के दौरे पर भेज दिया गया। सारा खर्च कंपनी ने उठाया और उसे 25 डॉलर प्रतिदिन फुटकर (आउट ऑफ पॉकेट) खर्च के लिए अलग से दिए।
किसी से कुछ माँगने से पहले हमें स्वयं को बार-बार उस आदमी की जगह रखकर देखना चाहिए, जिससे हम कुछ चाहते हैं, और तदनुसार ही अनुरोध करना चाहिए। याद रखिए आम तौर पर कोई ‘नहीं’ नहीं कहना चाहिए। क्योंकि जायज बात के लिए ‘नहीं’ कहना असहज है, उसके लिए भी स्वयं को मारना पड़ता है। तभी तो रहीम ने आगे कहा है, ‘उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।


त्रुटियों से बचाव


पूछ लेने से न केवल राह पता चलती है और गाड़ी आगे बढ़ती है, अपितु ऐसा कुछ होने की संभावना भी खत्म हो जाती है जो नहीं किया जाना चाहिए। फ्रांसीसी सेना में एक बार जवानों की टोपियों की डिजाइन बदली जा रही थी। जनरल ने अपने एडीसी से पूछा कि कितनी टोपियाँ बदली जानी हैं। एडीसी ने इसे बड़ा गंभीर काम समझा और उसने इस पर अगले छः दिन मेहनत की। जब उसने जनरल को एक समेकित रिपोर्ट दी, तो जनरल ने उसे फाइल नं. 13 यानी रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। पहले तो एडीसी को बड़ा धक्का लगा, पर फिर वह समझ गया कि उसे जनरल से पूछ लेना चाहिए था कि ‘आपको कितनी विस्तृत सूचना चाहिए ?’ तब शायद वह अपने अनुभव से ही जवाब दे देता और शायद जनरल चाहता भी वही था।
किसी चीज का आपके काम से दूर का संबंध न होने पर भी प्रश्न पूछिए, जिज्ञासाएँ कीजिए। इससे आपके हाथ ऐसे सूत्र लेगेंगे, जो यथासमय आपके बहुत काम आएँगे। और हाँ, घर-दफ्तर में ऐसा माहौल भी पैदा कीजिए कि आपके बच्चे या अधीनस्थ कर्मचारी (जो बॉस के लिए बच्चों के ही समान होते हैं) भी सवाल पूछने में डरें—झिझकें नहीं। आखिर उन्हें भी जानने का उतना ही अधिकार है जितना आपको है।


पहले खुद तो कीजिए अपना सम्मान


अगर अपनी निगाह में ही आप दो कौड़ी के है, तो दूसरे भी यही मानेंगे
मानव-संसाधन-विकास यानी एचआरडी ने हाल ही में बहुत महत्त्व प्राप्त कर लिया है। एक समर्थकारी और प्रेरणादायक उपाय के रूप में स्वीकृत किया जाने लगा है। कहा तो यह तक जाता है कि व्यक्तिगत और संगठनात्मक, दोनों तरह की प्रभावोत्पादकता के लिए लोगों की संपूर्ण क्षमताओं का उपयोग एचआरडी को उचित महत्त्व दिए बिना संभव नहीं।
एचआरडी पर जितना भी साहित्य उपलब्ध है, वह प्रेरणा, टीम-निर्माण और नेतृत्व जैसे सिद्धांतों से भरा पड़ा है। विश्वास, खुलापन, स्वायत्तता, सहयोग, कर्मण्यता और प्रयोग-शीलता एचआरडी के क्षेत्र में प्रचलित कुछ और शब्द हैं।


स्वाभिमान का महत्त्व


पर आश्चर्य है कि स्वाभिमान या ‘रचनात्मक अहम्’ का उल्लेख कभी-कभार ही मिलता है। किंतु इससे हो सकनेवाले लाभों को दृष्टिगत रखते हुए ‘स्वाभिमान’ की अवधारणा और व्यक्तिगत व कॉरपोरेट, दोनों ही संदर्भों में उसके निहितार्थों पर गहराई से गौर करना आवश्यक है।
नेपोलियन कहा करता था कि ‘वे इसलिए योग्य हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे योग्य हैं।’ भारतीय संदर्भ में स्वामी विवेकानंद ने ‘स्वाभिमान’ या ‘आत्मसम्मान’ के महत्त्व को बार-बार रेखांकित किया है। उन्होंने कहा है कि ‘मनुष्यता के संपूर्ण इतिहास में, समस्त महान स्त्री-पुरुषों के जीवन में जो सर्वाधिक प्रेरणा-शक्ति रही है, वह है उनका आत्मविश्वास। इस बोध के जाग्रत् होने पर ही कि उन्हें महान बनना है, वे महान बने।


विकास का स्वस्ति-चक्र


आज की कॉरपोरेट-दुनिया में अनेक भारतीय कंपनियाँ सच्चे अर्थों में ‘विश्वस्तरीय कंपनियाँ’ बनने के लिए संघर्षरत हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती संख्या में भारतीय कंपनियों का पूर्वोत्कर्ष भारतीय प्रबंधकों के स्वाभिमान में वृद्धि करेगा, जबकि भारतीय प्रबंधकों का बढ़ा हुआ स्वाभिमान भारतीय कंपनियों को निश्चय ही नई ऊँचाइयाँ छूने में मदद देगा। कारण, उपलब्धियों से स्वाभिमान बढ़ता है और बढ़े हुए स्वाभिमान से और उपलब्धियाँ हासिल होती हैं। यह उत्तरोत्तर विकास का ‘स्वास्ति-चक्र’ है।
स्वाभिमान ‘स्व’ से प्रकट होता है, जो व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। इसका अर्थ है कि हम अपना आदर करते हैं। ‘स्वाभिमान’ को सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है। ‘स्व’ नहीं है तो कुछ भी नहीं है। मेरे लिए यह संसार तभी तक है, जब तक मैं हूँ। मैं ही नहीं, तो फिर कुछ भी होने का क्या अर्थ है ? आदमी स्वस्थ भी तभी होता है, जब वह ‘स्व’ में ‘स्थ’ यानी स्थित होता है। यदि वह आत्म का यानी अपना ही सम्मान नहीं कर सकता, तो दूसरों का सम्मान कैसे करेगा ? जाहिर है कि स्वाभिमान, अहंकार से भिन्न है। अहंकार का मतलब है ‘मैं ही’ जबकि स्वाभिमान का मतलब है ‘मैं भी’। इसलिए स्वाभिमान को ‘रचनात्मक अहं’ कहा गया है।


कुछ से बहुत-कुछ


अनुभव बताते हैं कि हमारी व्यक्तिगत क्षमताएँ हमारी ‘स्व’ की अवधारणा और स्वाभिमान से संबद्ध होती हैं। यदि हम अपना ज्यादा सम्मान करते हैं अर्थात् ज्यादा स्वाभिमानी हैं, तो हम स्वयं से ज्यादा अपेक्षाएँ करते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें स्वयं से ज्यादा ऊँची अपेक्षाएँ करके अकसर बड़ी सफलताएँ हासिल की जाती हैं। इससे एक तरह का ‘स्वस्ति-चक्र’ बन जाता है, जिसमें ‘अपेक्षाओं से उपलब्धियाँ’ और ‘उपलब्धियों से और अपेक्षाएँ’ उत्पन्न होती जाती हैं।
वारेन बेनिस और बर्ट नैनस (संक्षेप में डब्ल्यूबी एंड बीएन के नाम से विख्यात) ने अपनी पुस्तक ‘लीडर्स-दि स्ट्रेटेजीज ऑफ टेकिंग चार्ज’ में इरविन फैडरमैन का यह कथन उद्धत किया है, ‘हमारी व्यक्तिगत क्षमता हमारे स्वाभिमान की सीधी व्युत्पत्ति है, जिसका मतलब है कि हम खुद को अच्छा समझते हैं। अगर हम स्वयं को और ज्यादा सम्मान देंगे, तो हम स्वयं से ज्यादा अपेक्षाएँ करेंगे। इस विकास-प्रक्रिया की परिणति ज्यादा कठिन लक्ष्यों, उच्चतर अपेक्षाओं और फलतः ज्यादा प्रभावपूर्ण उपलब्धियों के रूप में होती है।...धैर्य, प्रसन्नता और उत्साह से आपका अनुसरण करनेवाले लोग आपको यह महसूस कराते हैं कि आप भी कुछ हैं। और यह अहसास आपको ‘कुछ’ से ‘बहुत-कुछ’ की यात्रा पर ले चलता है।


भावनात्मक बुद्धिमत्ता


डब्ल्यूबी एंड बीएन अपनी उपर्युक्त पुस्तक में खुद भी कहते हैं, ‘रचनात्मक अहं यानी स्वाभिमान का संबंध परिपक्वता से है, जिसे हम भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहना ज्यादा पसंद करेंगे।’
अन्य बातों के बीच यह भावनात्मक बुद्धिमत्ता दूसरों से निरंतर अनुमोदन और मान्यता प्राप्त किए बिना ही निर्णय लेने और कार्य करने की योग्यता प्रदान करती है।
डब्ल्यूबी एंड बीएन इंगित करते हैं कि ‘स्वाभिमान दूसरों में भी आत्मविश्वास की भावना और उच्च अपेक्षाएँ पैदा करके अपना प्रभाव छोड़ता है।’ उच्च स्वाभिमान संभवतः समस्त महान हस्तियों में एक आम घटक होता है, जो संपूर्ण समाज पर प्रभाव डालता है। दूसरे शब्दों में, उनका स्वाभिमान धीरे-धीरे रिसकर सारे समाज को प्रभावित करता रहता है।
अतः अपने लोगों का स्वाभिमान जाग्रत करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ऐसा करके ही हम कठिन लक्ष्य साध सकते हैं। हमें इस प्रसिद्ध उक्ति को नहीं बिसराना चाहिए कि ‘अपराध असफलता नहीं बल्कि न्यून लक्ष्य-निर्धारण है।


अपरिपक्वता से परिपक्वता की ओर


क्रिस आर्गिरिस द्वारा अपनी पुस्तक ‘पर्सनैलिटी एंड ऑर्गेनाइजेशन : दि कंफ्लिक्ट बिटवीन सिस्टम एंड दि इंडिविजुअल’ में प्रतिपादित ‘परिपक्वता सिद्धांत’ में यह निर्दिष्ट किया गया है कि ‘स्वस्थ व्यक्तियों में अपरिपक्वता से परिपक्वता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति होती है।’ आर्गिरिस के अनुसार इसका अर्थ है :
•    निष्क्रियता से बढ़ती सक्रियता की ओर गति,
•    दूसरों पर निर्भरता से आत्मनिर्भरता यानी स्वाधीनता की ओर गति,
•    व्यवहार के कुछ ही तौर-तरीकों की तुलना में अनेक विकल्प रखने की ओर गति,
•    सतही रूचियों के बजाय गहनतर रुचियाँ होने की ओर गति,
•    अल्पकालिक परिदृश्य यानी पर्सपेक्टिव के बजाय दीर्घकालिक पर्सपेक्टिव रखने की ओर गति,
•    अधीनस्थ स्थिति के बजाय स्वयं को समान या उच्चस्थ स्थिति में रखकर देखने की ओर गति, और
•    जानकारी के अभाव से जानकार होने की ओर गति।
कहने की आवश्यकता नहीं कि परिपक्वता की उपर्युक्त विशिष्टताएँ उच्च स्वाभिमान की पूर्वापेक्षा के बिना प्राप्त करना मुश्किल है।


कैसे बढ़ाएँ स्वाभिमान


स्वाभिमान व्यक्ति में अत्यधिक सामर्थ्य और लोच पैदा करता है। जेरी मिशिंटन ने अपनी अत्यधिक लोकप्रिय पुस्तक ’52 थिंग्स यू कैन डू टु रेज योअर सेल्फ एस्टीम’ में स्वाभिमान में वृद्धि करने के कुछ उपयोगी टिप्स सुझाए हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
•    फोकस अपनी क्षमताओं पर करें, न कि कमजोरियों पर।
•    दूसरों को समान समझें, चाहे समाज में उनकी जो भी हैसियत हो। दूसरों को ऊँचा नहीं समझना चाहिए।
•    दूसरों को प्रभावित करने के लिए ज्यादा चिंतित न हों। हो सकता है, वे आपको प्रभावित करना चाह रहे हों। वैसे भी तनावरहित होकर आप स्वयं को बेहतर ढंग से उजागर कर सकते हैं।
•    स्वयं को ‘जैसे  हैं वैसे’ स्वीकारें और सराहें।
याद रखें, यदि आप खुद को कम महत्त्व देंगे या कम करके आँकेंगे, तो यह आपके व्यवहार में प्रतिफलित होगा और बदले में दूसरे भी आपको कम करके ही आँकेंगे।
जेरी मिशिंटन के शब्दों में, ‘खोए स्वाभिमान की पुनःप्राप्ति का मतलब है अपने बारे में अपनी धारणा बदलना।’ उनकी मान्यता है कि ‘अपनी जिंदगी पर अपने नियंत्रण, अपनी उपयुक्तता और अपने जन्मजात गुणों पर जोर देकर’ अपना खोया हुआ स्वाभिमान लौटाया जा सकता है। लेखक हमें अपनी गलतियाँ बिना खुद को कोसे स्वीकार करने का संदेश देता है, क्योंकि जानबूझकर कोई गलती नहीं करता। हमें इस तरह खुद का हिमायती बनना चाहिए


कर्मचारियों के स्वाभिमान में वृद्धि


कॉरपोरेट-संदर्भ में कर्मचारियों के स्वाभिमान में वृद्धि के उपाय ऊँचे लाभांश दे सकते हैं। इससे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की जा सकती हैं, जो बदले में कर्मचारियों के स्वाभिमान में और वृद्धि करके उन्हें और बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करने के लिए प्रेरित कर ‘स्वस्ति-चक्र’ निर्मित कर सकती हैं।
ऐसे अनेक उपाय हैं, जिन्हें कॉरपोरेट-संदर्भ में सामान्य रूप से कर्मचारियों का स्वाभिमान बढ़ाने के लिए आजमाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, उत्कृष्ट उपलब्धियाँ हासिल करनेवालों को उपयुक्त रूप से पुरस्कृत करके उनका स्वाभिमान ब़ढ़ाया जा सकता है। इससे अन्य लोगों को भी कड़ी मेहनत करने की प्रेरणा मिलेगी। पर यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि उत्कृष्ट उपलब्धियाँ हासिल करनेवालों के चयन का मानदंड पारदर्शी होना चाहिए।
अन्यथा कुछ लोग दूसरों को, विशेष कर उन्हें जो स्वयं को भी पुरस्कार का पात्र समझते हैं, हतोत्साहित कर सकते हैं। प्रशिक्षण, कैरियर-प्रगति आदि के रूप में प्रभावपूर्ण एचआरडी उपाय भी न केवल कार्य-दल को प्रोफेशनल मोर्चे पर भली भाँति लैस ही करते हैं, बल्कि उसका स्वाभिमान, आत्मविश्वास, मनोबल और गतिशीलता भी बढ़ाते हैं।
आपके विचारों पर निर्भर है सबकुछ
जैसे विचारों को आप प्रश्रय देंगे, वैसे ही काम आप करेंगे भी
एक घुमंतू विक्रय-प्रतिनिधि की कार का टायर अँधेरी रात में एक सुनसान सड़क पर बैठ गया। तब उसे ध्यान आया कि उसके पास जैक नहीं है तभी उसे एक फार्म-हाउस में प्रकाश दिखाई दिया। उसने फार्म-हाउस की तरफ कदम बढ़ाए तो उसके दिमाग में एक के बाद एक विचार आने लगे-अगर किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो ? अगर उसके पास भी जैक नहीं हुआ तो ? अगर उसने जैक होते हुए भी मुझे देने से इनकार किया तो ?...जैसे-जैसे उसके दिमाग में उलटे-सुलटे खयाल आते गए, वैसे-वैसे वह अधिकाधिक क्षुब्ध होता गया और अंततः जब फार्म-हाउस के मालिक ने दरवाजा खोला तो उसने उसे एक झापड़ रसीद किया और बोला, ‘अपने पास ही रख अपना सड़ियल जैक।’
इस किस्से पर आप शायद मुस्कुरा रहे होंगे, क्योंकि यह आत्म-पराभव को रेखांकित करनेवाली बड़ी ही आम-सी चुहल लिए हुए है, पर स्वयं आप भी कितनी ही बार अपने-आपसे कहा करते होंगे, ‘मैं जो कुछ भी तय करता हूँ, वैसा कभी नहीं होता’, ‘मैं अब कोई योजना बनाऊँगा ही नहीं’, ‘मैं जो भी करता हूँ, वही चौपट हो जाता है’, आदि। असल में, हमारे अंतस की आवाज ही हमारे जीवन का नियमन करती है। अगर ये विचार नैराश्य और विनाश की रचना करने लगें, तो आप उसकी ओर बढ़ने भी लगते हैं क्योंकि नकारात्मक व निराशावादी शब्द सहयोग व प्रोत्साहन देने के बजाय आत्म-विश्वास का हनन करते हैं।
सीधे-सादे शब्दों में कहें तो अच्छा या बेहतर अनुभव करने के लिए बेहतर सोचने की आवश्यकता होती है। कैसे, इस बारे में कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं !




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